जीवन का लक्ष्य
जीवन का लक्ष्य
प्राचीन काल से हिन्दुस्तान, सनातन संस्कृति एवं सभ्यता का केन्द्र बिन्दु रहा है।
हिन्दुस्तान धर्म, अध्यात्म, योगा, षिक्षा, संस्कार, एवं मानव मूल्यों के विकास का
केन्द्र रहा है।
आज दुनिया के शक्तिषाली एवं विकसित देशों में जहॉ विकास चरम पर है, और आगे विज्ञान के क्षेत्र में विकास को कुछ भी नही रह गया है, तब वहॉ की सरकार ने तुलनात्मक अध्ययन मे पाया कि सदियों पहले हिन्दुस्तान इससे भी अधिक विकसित था।
जैसे-दुनिया के सबसे तेज चलने वाले विमान की गति से भी तेज उस समय रावण का पुष्पक विमान चलता था, जो मन की गति से चलता था। आज के घातक से घातक मिसाईलों से भी ज्यादा शक्तिषाली एवं घातक तत्कालीन बाण थे। आज के परमाणु बम एवं अणुबम से भी ज्यादा घातक तत्कालीन बृह्मास्त्र था। आज के दूरसंचार की सफलतम तकनीक की तुलना मे तत्कालीन संचार (Tele Pathy) था, जब ऋषि-मुनि, व्यक्ति, योगा-ध्यान के माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान पर सषरीर पहॅुच जाते थे। इसी तरह प्राण विखण्डन, परकाया प्रवेष, बृह्मण्ड दर्षन एवं भ्रमण (सषरीर जीवित अवस्था में स्वर्गलोक, देव लोक आदि लोकों में पहॅुच जाना।) किया करते थे।
तब के ऋषि-मुनि/मानव इतने शक्तिशाली एवं सामर्थ्यवान होते थे, जिसकी कोई सीमा नही है। अगस्त मुनि ने एक ही घूंट में पूरा समुद्र पी लिया था।
ध्यान दें हिन्दुस्तान की ये समस्त सनातन शक्तियॉ, क्रियाए विलुप्त नही हुई हैं। जानकर व्यक्तियों द्वारा अपने ज्ञान का आगे सम्प्रेषण न किये जाने एवं उनकी मृत्यु पश्चात वह विद्या उन्ही के साथ विलुप्त हो गई या फिर सामर्थ्यवान गुरू द्वारा ये विद्याए दी भी गई तो पूरी नही दी गई। यह प्रक्रिया सनातन से चलते-चलते वर्तमान मे यह स्थिति आ चुकी है कि हमारी सनातन की सभ्यता, संस्कृति, विकास, अध्यात्मिक क्रियाए, शक्तियॉ विलुप्त होने के कगार पर हैं। यदि कोई थोड़ा-बहुत जानता भी है, तो वह उसे अपने अंदर समेटे हुए है। हो सकता है कि सामर्थ्यवान गुरू न हो, या फिर ग्राह्यता हेतु उतने सक्षम शिष्यों का अभाव हो।
उस परमात्मा ने हमें असीम शक्तियॉं प्रदान करके इस धरती पर एक विशेष कार्य सिद्धि के लिए भेजा है। किन्तु हम अपने आपको (आत्मा को) भूलकर शरीर को सबकुछ समझ बैठे और अपने अर्न्तिर्नहित शक्तियों से अनजान अपने ही द्वारा बनाई गई मूर्तियों, मंदिरों में शक्तियों की खोज करने लगे। मैं ये नहीं कहता कि आप नास्तिक हो जायें या मेरे इन बातों से आपकी धार्मिक भावना को आहत करने का उद्देश्य नही है।
जरा सोचिये ! जब आप किसी मंदिर (देवस्थान) मे मूर्ति (ईश्वर) के सामने कार्यसिद्धि हेतु प्रार्थना करते हैं, उस समय आपकी एकाग्रता, सकारात्मक उर्जा और दृढ संकल्प शक्ति से (कि मैने भगवान से प्रार्थना कर ली है, मेरा काम हो जायेगा) आपका कार्य सिद्ध हो जाता है, और पूरा श्रेय आपके आस्था का केन्द्र उस ईश्वर को जाता है। आप उन्हें नमन करते हैं, और प्रसन्न हो जाते हैं। किन्तु यदि आप इसी एकाग्रता, सकारात्मकता और दृढ़ संकल्प शक्ति के साथ अपने अंदर छिपी अलौकिक और पारलौकिक शक्तियों को जाग्रत करने का प्रयास करें तो आपको अपने अंदर ईश्वर (परमात्मा) के दर्शन अवश्य प्राप्त होंगे और आपको ईश्वरत्व की प्राप्ति होगी। आप अपने साथ-साथ अन्य लोगों की भी मदद कर सकेंगे। आप स्वयं देवतुल्य हो जायेंगे।
ध्यान दें प्रकृति ने हम सभी को एक खास उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही इस दुनिया में शरीर देकर भेजा है। परन्तु यहॉ आने के बाद हम उस उद्देश्य को भूलकर मोह-माया के जाल में फस जाते हैं। हम उस ईश्वरीय कार्य को भूलकर अपने विकास के नाम पर अपने विनाश की तैयारी करते है। जिसका नतीजा है अप्रत्याशित प्राकृतिक आपदाए।
ध्यान रखें प्रकृति अपना वांछित कार्य आपसे किसी न किसी रूप में करा लेती है।
प्रकृति का कोई भी कार्य न कभी रूका है और न ही रूकेगा । रूक रहा है तो सिर्फ ओर केवल सिर्फ हमारा अध्यात्मिक विकास। क्योकि मरने के बाद हमारा शरीर यहीं रह जाता है। कुछ भी साथ नही जाता है। जाती है तो सिर्फ वह आत्मा और संचित की हुई आत्मिक शक्तियॉ।
विश्व कल्याणार्थ, मानवमूल्यों के विकास हेतु दृढ़ संकल्पित मेरा परम उद्देश्य है कि धर्म-सम्प्रदाय, जाति-वर्ग, लिंग-भेद, देश-विदेश, की भावनाओं से ऊपर उठकर ‘‘मानव धर्म’’ को अपनायें। अपने आप को पहचानें। ईश्वर द्वारा दी गई अनन्त शक्तियों को पहचानें एवं उनका स्वामी बनकर जगत का कल्याण करें। ‘‘विश्व बंधुत्व’’ एवं ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम’’ को यथार्थ करें। इस लोक मे अपना विकास करें और परलोक के लिए भी आत्म-शक्तियों का विकास करें। जिस तरह से पिता की विरासत का स्वामी उसका पुत्र होता है, ठीक उसी तरह से जगत पिता परमात्मा की विरासत के आप हकदार हैं। जब आप उस परमात्मा की संतान हैं तो परम तत्व प्राप्त कर इस मृत्यु लोक में राज करें ओर परलोक में भी राज करें। मुक्ति के मार्ग पर चलते हुए मोक्ष प्राप्त करें ओर परमात्मा में विलीन हो जायें ।
आज दुनिया के शक्तिषाली एवं विकसित देशों में जहॉ विकास चरम पर है, और आगे विज्ञान के क्षेत्र में विकास को कुछ भी नही रह गया है, तब वहॉ की सरकार ने तुलनात्मक अध्ययन मे पाया कि सदियों पहले हिन्दुस्तान इससे भी अधिक विकसित था।
जैसे-दुनिया के सबसे तेज चलने वाले विमान की गति से भी तेज उस समय रावण का पुष्पक विमान चलता था, जो मन की गति से चलता था। आज के घातक से घातक मिसाईलों से भी ज्यादा शक्तिषाली एवं घातक तत्कालीन बाण थे। आज के परमाणु बम एवं अणुबम से भी ज्यादा घातक तत्कालीन बृह्मास्त्र था। आज के दूरसंचार की सफलतम तकनीक की तुलना मे तत्कालीन संचार (Tele Pathy) था, जब ऋषि-मुनि, व्यक्ति, योगा-ध्यान के माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान पर सषरीर पहॅुच जाते थे। इसी तरह प्राण विखण्डन, परकाया प्रवेष, बृह्मण्ड दर्षन एवं भ्रमण (सषरीर जीवित अवस्था में स्वर्गलोक, देव लोक आदि लोकों में पहॅुच जाना।) किया करते थे।
तब के ऋषि-मुनि/मानव इतने शक्तिशाली एवं सामर्थ्यवान होते थे, जिसकी कोई सीमा नही है। अगस्त मुनि ने एक ही घूंट में पूरा समुद्र पी लिया था।
ध्यान दें हिन्दुस्तान की ये समस्त सनातन शक्तियॉ, क्रियाए विलुप्त नही हुई हैं। जानकर व्यक्तियों द्वारा अपने ज्ञान का आगे सम्प्रेषण न किये जाने एवं उनकी मृत्यु पश्चात वह विद्या उन्ही के साथ विलुप्त हो गई या फिर सामर्थ्यवान गुरू द्वारा ये विद्याए दी भी गई तो पूरी नही दी गई। यह प्रक्रिया सनातन से चलते-चलते वर्तमान मे यह स्थिति आ चुकी है कि हमारी सनातन की सभ्यता, संस्कृति, विकास, अध्यात्मिक क्रियाए, शक्तियॉ विलुप्त होने के कगार पर हैं। यदि कोई थोड़ा-बहुत जानता भी है, तो वह उसे अपने अंदर समेटे हुए है। हो सकता है कि सामर्थ्यवान गुरू न हो, या फिर ग्राह्यता हेतु उतने सक्षम शिष्यों का अभाव हो।
उस परमात्मा ने हमें असीम शक्तियॉं प्रदान करके इस धरती पर एक विशेष कार्य सिद्धि के लिए भेजा है। किन्तु हम अपने आपको (आत्मा को) भूलकर शरीर को सबकुछ समझ बैठे और अपने अर्न्तिर्नहित शक्तियों से अनजान अपने ही द्वारा बनाई गई मूर्तियों, मंदिरों में शक्तियों की खोज करने लगे। मैं ये नहीं कहता कि आप नास्तिक हो जायें या मेरे इन बातों से आपकी धार्मिक भावना को आहत करने का उद्देश्य नही है।
जरा सोचिये ! जब आप किसी मंदिर (देवस्थान) मे मूर्ति (ईश्वर) के सामने कार्यसिद्धि हेतु प्रार्थना करते हैं, उस समय आपकी एकाग्रता, सकारात्मक उर्जा और दृढ संकल्प शक्ति से (कि मैने भगवान से प्रार्थना कर ली है, मेरा काम हो जायेगा) आपका कार्य सिद्ध हो जाता है, और पूरा श्रेय आपके आस्था का केन्द्र उस ईश्वर को जाता है। आप उन्हें नमन करते हैं, और प्रसन्न हो जाते हैं। किन्तु यदि आप इसी एकाग्रता, सकारात्मकता और दृढ़ संकल्प शक्ति के साथ अपने अंदर छिपी अलौकिक और पारलौकिक शक्तियों को जाग्रत करने का प्रयास करें तो आपको अपने अंदर ईश्वर (परमात्मा) के दर्शन अवश्य प्राप्त होंगे और आपको ईश्वरत्व की प्राप्ति होगी। आप अपने साथ-साथ अन्य लोगों की भी मदद कर सकेंगे। आप स्वयं देवतुल्य हो जायेंगे।
ध्यान दें प्रकृति ने हम सभी को एक खास उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही इस दुनिया में शरीर देकर भेजा है। परन्तु यहॉ आने के बाद हम उस उद्देश्य को भूलकर मोह-माया के जाल में फस जाते हैं। हम उस ईश्वरीय कार्य को भूलकर अपने विकास के नाम पर अपने विनाश की तैयारी करते है। जिसका नतीजा है अप्रत्याशित प्राकृतिक आपदाए।
ध्यान रखें प्रकृति अपना वांछित कार्य आपसे किसी न किसी रूप में करा लेती है।
प्रकृति का कोई भी कार्य न कभी रूका है और न ही रूकेगा । रूक रहा है तो सिर्फ ओर केवल सिर्फ हमारा अध्यात्मिक विकास। क्योकि मरने के बाद हमारा शरीर यहीं रह जाता है। कुछ भी साथ नही जाता है। जाती है तो सिर्फ वह आत्मा और संचित की हुई आत्मिक शक्तियॉ।
विश्व कल्याणार्थ, मानवमूल्यों के विकास हेतु दृढ़ संकल्पित मेरा परम उद्देश्य है कि धर्म-सम्प्रदाय, जाति-वर्ग, लिंग-भेद, देश-विदेश, की भावनाओं से ऊपर उठकर ‘‘मानव धर्म’’ को अपनायें। अपने आप को पहचानें। ईश्वर द्वारा दी गई अनन्त शक्तियों को पहचानें एवं उनका स्वामी बनकर जगत का कल्याण करें। ‘‘विश्व बंधुत्व’’ एवं ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम’’ को यथार्थ करें। इस लोक मे अपना विकास करें और परलोक के लिए भी आत्म-शक्तियों का विकास करें। जिस तरह से पिता की विरासत का स्वामी उसका पुत्र होता है, ठीक उसी तरह से जगत पिता परमात्मा की विरासत के आप हकदार हैं। जब आप उस परमात्मा की संतान हैं तो परम तत्व प्राप्त कर इस मृत्यु लोक में राज करें ओर परलोक में भी राज करें। मुक्ति के मार्ग पर चलते हुए मोक्ष प्राप्त करें ओर परमात्मा में विलीन हो जायें ।
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