जिंदगी के इस समर में, कब मिलेगी जीत मुझको।





काल की यह चाल देखो ,ले चली विपरीत मुझको।
 जिंदगी के इस समर में,कब मिलेगी जीत मुझको।
 संसार में सुख बांटने का, यत्न में करता रहा हूं ।
घूंट पीकर दर्द के भी, मैं सदा हंसता रहा हूं।
 किंतु फिर भी इस जगत में,शून्य हैं अस्तित्व मेरा।
 आज विधि की मान्यताएं,लग रही अनरीत मुझको ।
जिंदगी के इस समर में,कब मिलेगी जीत मुझको।
 एक पग आगे बढा़ तो,आंख में सब की चढा मै। 
कल तलक था भीड़ में,पर आज तो तनहा खड़ा मैं। 
चांद को पाने का सपना, रह गया जिनका अधूरा।
देखकर संकल्प मेरा,कर रहे भयभीत मुझको।
जिंदगी के इस समर में, कब मिलेगी जीत मुझको।
 एक कोने में दबी है,कामना सहमी बेचारी।
 मिट चुकी है आज शायद, हाथ की रेखाएं सारी।
 जिंदगी की राहों में, मैं दुख समेटे चल रहा हूं ।
टूटता है मन सृजन के, मत सुनाओ गीत मुझको।
 जिंदगी के इस समर में, कब मिलेगी जीत मुझको।

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