भगवा ध्वज
राष्ट्रजीवन में ध्वज का स्थान :-
स्फूर्ति केंद्र,एकता तथा दृढ़ता के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्थान ध्वज का है। विजय चिन्ह विजिगीषु मनोवृति का प्रतिक। यश,सफलता और सम्मान का प्रतिक।
ध्वज का निर्माण कैसे होता है।
ध्वज अनायास ही नहीं बनते। उसके पीछे होता है राष्ट्र का इतिहास,परम्परा तथा जीवन दृष्टि।अनेक आधुनिक राष्ट्रों के ध्वजों के पीछे केवल राजनीतिक घटनाएं हैं। क्योंकि वह सभी देश( राष्ट्र )नये बने हैं,परन्तु अपना प्राचीन राष्ट्र है,इसी कारण प्राचीन ध्वज "भगवा-ध्वज" ही राष्ट्र का परम्परागत पुरातन ध्वज है।
भगवा ध्वज पुरातन ध्वज ।
वेदों में, "अरुणः सन्तु केतवाः" का वर्णन उसके हल्दी जैसे रंग का वर्णन आता है। आदिकाल से जनमेजय तक सभी चक्रवर्ती राजाओं ,सम्राटों,महाराजाओं ,धर्मगुरुओं ,अवतारों और सेनानायकों का ध्वज यही था । जैसे रघु,राम,अर्जुन,चन्द्रगुप्त,शंकरादि, विक्रमादित्य,चन्द्रगुप्त मौर्य, स्कन्दगुप्त,यशोधर्मा,हर्षवर्धन,पृथ्वीराज,महाराणा प्रताप,शिवाजी,गुरुगोबिंद आदि सभी ने इसी ध्वज की रक्षा के लिए संघर्ष किये ।
भगवा रंग का महत्व।
भगवा रंग त्याग, ज्ञान, पवित्रता और तेज का प्रतिक है, यज् की ज्वाला से निकली अग्नि-शिखाओं को लिए हुए। प्राचीन काल में जन-कल्याण की भावना से तप-साधना में रत सर्वस्वार्पण करने वाले सन्यासियों का बाना व उनका आदर्श सम्मुख उपस्थित करने वाला।
तिरंगा (राजध्वज) भारत में कैसे आया।
क्रांतिकारी जब देश से बाहर यूरोप में गए तो वहाँ फ्रांस और इटली की क्रांति गाथाएँ सुनी। वहां के क्रांतिकारियों के झण्डे तिरंगे थे, इसलिए अपना भी तिरंगा बनाने की इच्छा बनी।
1926 भगवा ध्वज को राष्ट्र ध्वज स्वीकारा।
1926 को कराँची कांग्रेस में "झंडा कमेटी" की रिपोर्ट में भगवा ध्वज को राष्ट्रध्वज के रूप में स्वीकार किया गया था, परन्तु तुष्टिकरण के कारण फ
गुरु दक्षिणा
किसी गुरुकुल में तीन शिष्यों नें अपना अध्ययन सम्पूर्ण करने पर अपने गुरु जी से यह बताने के लिए विनती की कि उन्हें गुरुदाक्षिणा में, उनसे क्या चाहिए
गुरु जी पहले तो मंद-मंद मुस्कराये और फिर बड़े स्नेहपूर्वक कहने लगे-‘मुझे तुमसे गुरुदक्षिणा में एक थैला भर के सूखी पत्तियां चाहिए, ला सकोगे?’ वे तीनों मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि उन्हें लगा कि वे बड़ी आसानी से अपने गुरु जी की इच्छा पूरी कर सकेंगे
सूखी पत्तियाँ तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती हैं| वे उत्साहपूर्वक एक ही स्वर में बोले-‘जी गुरु जी, जैसी आपकी आज्ञा
अब वे तीनों शिष्य चलते-चलते एक समीपस्थ जंगल में पहुँच चुके थे लेकिन यह देखकर कि वहाँ पर तो सूखी पत्तियाँ केवल एक मुट्ठी भर ही थीं , उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा
वे सोच में पड़ गये कि आखिर जंगल से कौन सूखी पत्तियां उठा कर ले गया होगा? इतने में ही उन्हें दूर से आता हुआ कोई किसान दिखाई दिया, वे उसके पास पहुँच कर, उससे विनम्रतापूर्वक याचना करने लगे कि वह उन्हें केवल एक थैला भर सूखी पत्तियां दे दे
अब उस किसान ने उनसे क्षमायाचना करते हुए, उन्हें यह बताया कि वह उनकी मदद नहीं कर सकता क्योंकि उसने सूखी पत्तियों का ईंधन के रूप में पहले ही उपयोग कर लिया था
अब, वे तीनों, पास में ही बसे एक गाँव की ओर इस आशा से बढ़ने लगे थे कि हो सकता है वहाँ उस गाँव में उनकी कोई सहायता कर सके
वहाँ पहुँच कर उन्होंने जब एक व्यापारी को देखा तो बड़ी उम्मीद से उससे एक थैला भर सूखी पत्तियां देने के लिए प्रार्थना करने लगे लेकिन उन्हें फिर से एकबार निराशा ही हाथ आई क्योंकि उस व्यापारी ने तो, पहले ही, कुछ पैसे कमाने के लिए सूखी पत्तियों के दोने बनाकर बेच दिए थे।
लेकिन उस व्यापारी ने उदारता दिखाते हुए उन्हें एक बूढी माँ का पता बताया जो सूखी पत्तियां एकत्रित किया करती थी| पर भाग्य ने यहाँ पर भी उनका साथ नहीं दिया क्योंकि वह बूढी माँ तो उन पत्तियों को अलग-अलग करके कई प्रकार की ओषधियाँ बनाया करती थी
अब निराश होकर वे तीनों खाली हाथ ही गुरुकुल लौट गये |गुरु जी ने उन्हें देखते ही स्नेहपूर्वक पूछा- ‘पुत्रो, ले आये गुरुदक्षिणा ?’तीनों ने सर झुका लिया
गुरू जी द्वारा दोबारा पूछे जाने पर उनमें से एक शिष्य कहने लगा- ‘गुरुदेव, हम आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाये | हमने सोचा था कि सूखी पत्तियां तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती होंगी लेकिन बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उनका भी कितनी तरह से उपयोग करते हैं
गुरु जी फिर पहले ही की तरह मुस्कराते हुए प्रेमपूर्वक बोले-‘निराश क्यों होते हो ? प्रसन्न हो जाओ और यही ज्ञान कि सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करतीं बल्कि उनके भी अनेक उपयोग हुआ करते हैं; मुझे गुरुदक्षिणा के रूप में दे दो
तीनों शिष्य गुरु जी को प्रणाम करके खुशी-खुशी अपने-अपने घर की ओर चले गये, वह शिष्य जो गुरु जी की कहानी एकाग्रचित्त हो कर सुन रहा था, अचानक बड़े उत्साह से बोला
‘गुरु जी,अब मुझे अच्छी तरह से ज्ञात हो गया है कि आप क्या कहना चाहते हैं आप का संकेत, वस्तुतः इसी ओर है न कि जब सर्वत्र सुलभ सूखी पत्तियां भी निरर्थक या बेकार नहीं होती हैं तो फिर हम कैसे, किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा और महत्त्वहीन मान कर उसका तिरस्कार कर सकते हैं?
चींटी से लेकर हाथी तक और सुई से लेकर तलवार तक-सभी का अपना-अपना महत्त्व होता है, गुरु जी भी तुरंत ही बोले-‘हाँ, पुत्र, मेरे कहने का भी यही तात्पर्य है कि हम जब भी किसी से मिलें तो उसे यथायोग्य मान देने का भरसक प्रयास करें ताकि आपस में स्नेह, सद्भावना, सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष के बजाय उत्सव बन सके
दूसरे,यदि जीवन को एक खेल ही माना जाए तो बेहतर यही होगा कि हम निर्विक्षेप, स्वस्थ एवं शांत प्रतियोगिता में ही भाग लें और अपने निष्पादन तथा निर्माण को ऊंचाई के शिखर पर ले जाने का अथक प्रयास करें |’
अब शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट था
गुरु दक्षिणा का उद्देश्य
गुरुपूजा और समर्पण भाव ---
संस्कृत की "गृ" धातु जिसका अर्थ है अज्ञान "रू" प्रत्यय लगाने से संयुक्त शब्द होता है "गुरु" जिसका अर्थ होता अज्ञान को हरने वाला। गुरु मनुष्य जीवन के विकास में सबसे महत्वपूर्ण है। किसी भी उपकार के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना हिन्दु समाज की विशेषता है। गुरुपूर्णिमा पर्व का महत्व इसी दृष्टि से समझने की आवश्कता है। आषाढ़ मास की पूर्णिमा हिन्दु समाज में गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा के नाम से प्रसिद्ध है। भारतीय समाज में वैदिक काल के समय से ही गुरु शिष्य परम्परा विद्यमान रही है। अपने यहाँ मान्यता है कि बिना गुरु के ज्ञान की प्राप्ति सम्भव नहीं। जीवन को सही दृष्टि गुरु के मार्गदर्शन से ही प्राप्त होती है। गुरुजनों के प्रति पूज्यभाव यह हमारी प्रकृति है। आध्यात्मिक विद्या का उपदेश देने और ईश्वर का साक्षात्कार करा देने वाले गुरु को अपनी भूमि में साक्षात् परम ब्रह्म कहा गया है। महर्षि दयानन्द जी ने भी गुरु का महत्व समझाते हुए कहा है कि "गु" अर्थात् अन्धकार, "रु" अर्थात् मिटाने वाला गुरु अर्थात् अन्धकार को मिटाने वाला ,अर्थात् ज्ञान देने वाला। इस सृष्टि में "माँ" ही प्रथम गुरु है। भारतीय संस्कृति में व्यक्ति ही नहीं तत्व को भी गुरु के रूप में स्वीकार करने की परम्परा विद्यमान है। गुरु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन एवं समर्पण का प्रतिक "गुरु दक्षिणा" यह हमारी प्राचीन पद्धति है जैसे :- आरुणि, शिवाजी, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, कौत्स आदि। संघ में व्यक्ति के स्थान पर तत्व निष्ठा का आग्रह किया गया । संघ ने पवित्र भगवाध्वज को गुरु स्थान पर स्वीकार किया क्योंकि यह राष्ट्र का प्रतिक है। आवश्कता है जिसे गुरु माना उसकी नित्य पूजा अर्थात् उसके गुणों को अपने अन्दर लाने की। "पतत्वेष कायो" एक संकेत मात्र है। इसका वास्तविक
गुरु पूर्णिमा उत्सव(कालेज विद्यार्थी )
*आषाढ़ मास की पूर्णिमा हिंदू समाज में गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा के नाम से प्रसिद्ध है भारतीय समाज में वैदिक काल के समय से ही गुरु शिष्य परंपरा विद्यमान रही है।
गुरु मनुष्य के जीवन के विकास में सबसे महत्वपूर्ण है गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु---------, गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाय-----
जीवन की सही दृष्टि गुरु के मार्गदर्शन से ही प्राप्त होती है
उदाहरण देवताओं के गुरु बृहस्पति, भगवान श्री रामचंद्र जी के गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र, भगवान कृष्ण के गुरु संदीपनी, छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ रामदास, बंदा बैरागी के गुरु गोविंद सिंह, स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस, आदि
गुरुजनों के प्रति पूज्यभाव यह हमारी प्रकृति है।आध्यात्मिक विद्या का उपदेश देने और ईश्वर का साक्षात्कार देने वाले गुरु को अपनी भूमि मंी साक्षात परम ब्रम्ह कहा गया है।
गुरु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन एवं समर्पण का प्रतीक गुरु दक्षिणा यह हमारी प्राचीन पद्धति है उदाहरण- एकलव्य, शिवाजी, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किसी व्यक्ति विशेष को गुरु नहीं मानता।संघ ने भगवा ध्वज को गुरु के रूप में स्वीकार किया है संघ व्यक्ति पूजक नहीं अपितु तत्व पूजक है क्योंकि व्यक्ति कभी भी स्खलनशील हो सकता है लेकिन तत्व सदैव स्थिर अटल है
हजारों वर्षों से हमारे पूर्वजों ने श्रद्धा से इस ध्वज को अपनाया और इसका पूजन किया भगवान श्री राम के रथ पर, भगवान श्री कृष्णा के रथ पर, पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप ,छत्रपति शिवाजी, महाराजा छत्रसाल, झांसी की रानी महारानी लक्ष्मी बाई सभी का ध्वज भगवा था
भगवा ध्वज उगते हुए सूर्य के समान है उगता हुआ सूर्य अंधकार व रात्रि की निष्क्रियता को समाप्त कर प्रकाश और जीवंतता देता है यज्ञ की ज्वाला के अनुरूप होने के कारण त्याग समर्पण ,और जन कल्याण की भावना, तप ,साधना आदि का आदर्श रखने वाला है
संघ ने पवित्रभगवा ध्वज को गुरु स्थान पर स्वीकार किया यह है राष्ट्र का प्रतीक है जिसे गुरु माना उसकी नित्य पूजा अर्थात उसके गुणों को अपने अंदर लाना चाहिए
वर्ष में एक बार स्वयंसेवक श्रद्धा भाव से ध्वज के सम्मुख उपस्थित होकर उसका पूजन करते हैं अर्थात श्री गुरु के
सम्मुख दक्षिणा अर्पित करते हैं
यह वार्षिक शुल्क ,चंदा, संग्रह,दान, सहयोग राशि जैसा नहीं।अत्यंत श्रद्धा पूर्वक पवित्र भाव से अपनी दैनिक आवश्यकता से कुछ कटौती करते हुए संचित द्रव्य(धन) को गुरु राष्ट्रदेव अर्थात भगवा ध्वज को श्री चरणों में विनीत भाव से सर्पित करना ही दक्षिणा है
यह प्रतिदिन का संग्रहीत समर्पण है प्राचीनकाल में आय का १/१० भाग समाज के लिए अर्पण करना
गुरु दक्षिणा में धन के समर्पण के साथ साथ मैंने दिया इस भाव का भी समर्पण है अर्थात मन में यह भाव भी ना आए समर्पण भाव की निरंतर वृद्धि होना चाहिए।
:श्री गुरु पूर्णिमा उत्सव: ( संयुक्त विद्यार्थी )
1 -भारतीय संस्कृति त्योहारों एवं पर्व की संस्कृति है इसमें समय-समय पर विभिन्न प्रकार के पर्व एवं त्योहार आयोजित होते रहते हैं ।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में भी उत्सवों को आयोजित किया जाता है। उन्हीं उत्सवों में से एक है "श्री गुरु पूर्णिमा उत्सव"
2-हमारे संस्कृति में गुरु पूर्णिमा का बड़ा ही श्रेष्ठ महत्व है यही कारण है , कि हम सनातन काल से आषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन को श्री गुरु पूर्णिमा महोत्सव के रूप में मनाते चले आ रहे हैं।
3-श्री गुरु पूर्णिमा उत्सव को आषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन मनाने का कारण है, कि इसी दिन साक्षात् नारायण ही जगतगुरु व्यास के रूप में, अज्ञान अंधकार में निमग्न प्राणियों को सदाचार एवं धर्म आचरण की शिक्षा देने के लिए अवतरित हुए थे।
4-पुराणों में प्रसिद्धि है कि यमुना के द्वीप में भगवान वेदव्यास का प्राकट्य हुआ इसलिए वे "द्वैपायन "कहलाए और श्याम वर्ण के होने के कारण उन्हें "श्री कृष्ण द्वैपायन "के नाम से जाना जाता है ।वेदांत संहिता का उन्होंने विभाजन किया इसलिए वे व्यास अर्थात वेदव्यास के नाम से प्रसिद्ध हुए ।इतिहास ,पुराण, पुराण ब्रह्म सूत्र, व्यास स्मृति आदि धर्म शास्त्रों, योग दर्शन आदि के वही रचयिता है इसलिए वह संसार के प्रथम गुरु भी हैं। यही कारण है की उनके जन्मदिन को समाज आज भी "श्री गुरु पूर्णिमा "के रूप में मना रहा है।।
5-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में गुरु स्थान पर परम पवित्र भगवा ध्वज को तत्व रूप में स्थापित किया गया है। और प्रत्येक स्वयंसेवक ध्वज को ही गुरु रूप में मानता है तथा श्री गुरु पूर्णिमा उत्सव पर ध्वज का पूजन करता है।
6-यह हमारा परम् पवित्र भगवा ध्वज सदैव हमारी भारतीय सनातन संस्कृति का प्रतीक स्वरूप हमारी पहचान रहा है ।और संपूर्ण समाज को त्याग ,बलिदान, समर्पण और सर्वस्व अर्पण की प्रेरणा देता रहा है ।
7-संघ में ध्वज को गुरु मानने का कारण यह भी है कि ध्वज निर्विकार है तथा मनुष्य में देश काल परिस्थिति वश विकार भी आ सकते हैं।
8- ध्वज यज्ञ का स्वरूप है जो सदैव त्याग भाव से समर्पण के साथ लक्ष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है ।
9-गुरु पूर्णिमा के शुभ अवसर पर प्रत्येक स्वयंसेवक ध्वज का पूजन कर समर्पण करता है।
10 -समर्पण का अर्थ केवल धन या द्रव्य का समर्पण नहीं वरन् तन -मन ,धन सर्वस्व का अर्पण है ।प्रत्येक स्वयंसेवक इसी भाव से ध्वज का पूजन करते हुए श्री गुरु पूर्णिमा उत्सव अपनी-अपनी शाखा में आयोजित कर इस कार्यक्रम में सम्मिलित होते हैं।
(एकलव्य उपमन्यु आरुणि की गुरु भक्ति की कहानी जोड़ना ठीक रहेगा)
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