संघ प्रार्थना RSS Prarthna/rss preyer

*प्रार्थना*
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोऽहम्।
महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे
पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते॥१॥

प्रभो शक्तिमन् हिन्दुराष्ट्राङ्गभूता
इमे सादरं त्वां नमामो वयम्
त्वदीयाय कार्याय बद्धा कटीयम्
शुभामाशिषं देहि तत्पूर्तये।

अजय्यां च विश्वस्य देहीश शक्तिम्
सुशीलं जगद्येन नम्रं भवेत्
श्रुतं चैव यत्कण्टकाकीर्णमार्गम्
स्वयं स्वीकृतं नः सुगंकारयेत्॥२॥

समुत्कर्ष निःश्रेयसस्यैकमुग्रम्
परं साधनं नाम वीरव्रतम्
तदन्तः स्फुरत्वक्षया ध्येयनिष्ठा
हृदन्तः प्रजागर्तु तीव्राऽनिशम्।

विजेत्री च नः संहता कार्यशक्तिर्
विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम्
परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रम्
समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्॥३॥

॥भारत माता की जय॥

नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे, त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोऽहम्।

हे प्यार करने वाली मातृभूमि! मैं तुझे सदा (सदैव) नमस्कार करता हूँ। तूने मेरा सुख से पालन-पोषण किया है।

महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे, पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते॥ १॥

हे महामंगलमयी पुण्यभूमि! तेरे ही कार्य में मेरा यह शरीर अर्पण हो। मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।

प्रभो शक्तिमन् हिन्दुराष्ट्राङ्गभूता, इमे सादरं त्वाम नमामो वयम्
त्वदीयाय कार्याय बध्दा कटीयं, शुभामाशिषम देहि तत्पूर्तये।

हे सर्वशक्तिशाली परमेश्वर! हम हिन्दूराष्ट्र के अंगभूत तुझे आदरसहित प्रणाम करते हैं। तेरे ही कार्य के लिए हमने अपनी कमर कसी है। उसकी पूर्ति के लिए हमें अपना शुभाशीर्वाद दे।

अजय्यां च विश्वस्य देहीश शक्तिम, सुशीलं जगद्येन नम्रं भवेत्,
श्रुतं चैव यत्कण्टकाकीर्ण मार्गं, स्वयं स्वीकृतं नः सुगं कारयेत्॥ २॥

हे प्रभु! हमें ऐसी शक्ति दे, जिसे विश्व में कभी कोई चुनौती न दे सके, ऐसा शुद्ध चारित्र्य दे जिसके समक्ष सम्पूर्ण विश्व नतमस्तक हो जाये, ऐसा ज्ञान दे कि स्वयं के द्वारा स्वीकृत किया गया यह कंटकाकीर्ण मार्ग सुगम हो जाये।

'समुत्कर्षनिःश्रेयसस्यैकमुग्रं, परं साधनं नाम वीरव्रतम्
तदन्तः स्फुरत्वक्षया ध्येयनिष्ठा, हृदन्तः प्रजागर्तु तीव्राऽनिशम्।

उग्र वीरव्रती की भावना हम में उत्स्फूर्त होती रहे जो उच्चतम आध्यात्मिक सुख एवं महानतम ऐहिक समृद्धि प्राप्त करने का एकमेव श्रेष्ठतम साधन है। तीव्र एवं अखंड ध्येयनिष्ठा हमारे अंतःकरणों में सदैव जागती रहे।

विजेत्री च नः संहता कार्यशक्तिर्, विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम्।
परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं, समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्॥ ३॥ ॥ भारत माता की जय॥

तेरी कृपा से हमारी यह विजयशालिनी संघठित कार्यशक्ति हमारे धर्म का सरंक्षण कर इस राष्ट्र को वैभव के उच्चतम शिखर पर पहुँचाने में समर्थ हो। भारत माता की जय ![1]

(🌼*प्रार्थना सप्ताह19/09/22से25/09/22के लिए बौद्धिक के बिन्दु*🌼)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदू समाज का संगठन है।  सब जानते ही हैं की संघ अर्थात शाखा संघ का मूल (प्राण )आधार शाखा ही है।
        शाखा रूपी तंत्र से संघ कार्य हेतु कार्यकर्ता निर्माण ही कार्य होता है। शाखा के विसर्जन के समय हम जिस मंत्र का उच्चारण करते हैं, उसे ही प्रार्थना करते हैं। संघ में प्रार्थना एक सिद्ध मंत्र है, जिसे लक्षावधि स्वयंसेवकों द्वारा दोहराते हुए कार्य सिद्धि की प्राप्ति का संकल्प पूर्ण होता है ।

        संघ की प्रार्थना की रचना व प्रारूप सर्वप्रथम फरवरी 1939 में नागपुर के पास सिन्दी में हुई बैठक में तैयार किया गया। प्रार्थना के इस बैठक में संघ के आद्य सरसंघचालक डाॅक्टर केशव बलिराम हेडगेवार, श्री गुरूजी, बाबा साहब आपटे, बालासाहब देवरस, अप्पाजी जोशी व श्री नानासाहब टालाटुले जैसे प्रमुख लोग सहभागी थे। 
        प्रारम्भ में प्रार्थना आधी मराठी व आधी हिन्दी भाषा में बनी। परन्तु सारे देश में एक स्वरूप एवं एक भाषा में प्रार्थना हो, ऐसा विचार करके देश की सर्वमान्य संस्कृत भाषा में इसका अनुवाद किया गया, एवं संशोधित किया गया। प्रार्थना के अन्त में 'भारत माता की जय' हिन्दी में रखा गया।
        पुणे के नरहरि नारायण भिड़े द्वारा प्रार्थना का संस्कृत में रूपान्तरण किया गया। इस प्रार्थना को सबसे पहले 23 अप्रैल 1940 को पुणे के संघ शिक्षा वर्ग में यादव राव जोशी ने वर्तमान बोली जाने वाली लय में गाया। प्रार्थना में प्रथम दो श्लोक भुजंगप्रयात छंद में तथा तीसरा श्लोक मेघ निर्घोष छंद में है। अंतिम पंक्ति भारत माता की जय हिंदी में है यह उद्घोष या जयकारा नहीं है, बल्कि प्रार्थना की एक कड़ी ही है। 
        प्रार्थना के प्रारंभ में मातृभूमि की वंदना की गई है अपने जीवन का निर्माण एवं गठन करने में जो कोई सहायक हुए हैं ,उनके प्रति एक आदर का कृतज्ञता का श्रद्धा का भाव अपने अंतःकरण में धारण करना यह अति प्राचीन समय से चली आ रही अपनी विशेष परंपरा है ।जीवन के गठन में माता का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। यह परम सत्य है, हमारी श्रद्धा मातृभूमि के प्रति माता के प्रति गौ माता के प्रति गंगा माता के प्रति तथा भारत भूमि में प्रवाहित होने वाले अनेकानेक नदियों वन पर्वतों  इत्यादि के प्रति है। यही मातृभूमि के प्रति हमारी श्रद्धा भावना है। वस्तुतः मातृत्व की संकल्पना का विकास एवं उसकी परिधि की व्याप्ति जितनी अधिक होगी उतने अधिक हम पशुता से मनुष्यता की ओर एवं मनुष्यता से देवत्व की ओर बढ़ते हैं ।यह थोड़ा सा चिंतन करने पर साधारण मनुष्य की भी समझ में आ सकता है। पशु जीवन का यह एक लक्षण है कि केवल बाल्यावस्था में ही उसे मात्र पुत्र संबंध का स्मरण रहता है ,परंतु मनुष्य को आजीवन इस मात्र पुत्र संबंध का स्मरण रहता है ,और जीवन भर उस जीवनदायिनी माता के प्रति वह श्रद्धा एवं पूज्य भाव रखता है ।यह परिधि और अधिक व्यापक करते हुए जब हम "मात्रृवत परदारेशु "का विचार एवं तदानुरुप विचार करते हैं, तब अपना जीवन अधिकतर सुसंस्कृत माना जाता है। इस परम पवित्र भूमि को उसी प्रकृति के अंश के रूप में अनुभव कर हम उसे मातृभूमि कहते हैं। हमारी यह माता है यह हम अनुभव करते हैं।" माता भूमि पुत्रोंहम पृथ्वीव्याः"इस अथर्ववेद के मंत्र के रूप में प्रकट हुई है।
      अपनी मातृभूमि का उल्लेख हिंदू भूमि इस शब्द से करते हैं, कारण स्पष्ट है उसका एक नाम हिंदुस्तान यह इसलिए है, कि यह हम हिंदुओं की भूमि है ।अनादि काल से कम से कम 10 -5000 वर्षों से यहां बसा हुआ जो समाज है वह अपना हिंदू समाज है ।इसकी मिट्टी से हम बने, पले, बढ़े और जो भी कुछ हम हैं वो इसी से हैं। इसलिए हम उसको संबोधित करते हैं कि हे! हिंदू भूमि ,तूने मेरा बड़े सुख के साथ संवर्धन किया है ।यह हमारी मातृभूमि मगल ही मगल प्रदान करती है। अर्थात महामंगला है ।हमें इससे पवन मिलता है, और निर्मल नीर भी ,धन एवं धन्य भी, इसमें विपुलता से मिलता है ।इस विशाल मातृभूमि के उदर में प्रचुर मात्रा में अमूल्य संपत्ति भी है ।अर्थात जीवन धारण करने के लिए आवश्यक है वह सारी सामग्री हमें उपलब्ध होती है। इसलिए इसे हम महामंगला अर्थात मंगल दायिनी मातृभूमि के रूप में अनुभूत करते हैं। भारत भूमि परम पवित्र भूमि है इसलिए हम इसे पुण्य भूमि इस शब्द से संबोधित करते हैं। "दुर्लभम् भारतेजन्मा, मानवम् तत्र दुर्लभम्" भारत भूमि में जन्म पाना बड़ी दुर्लभ बात है, फिर वह किसी भी योनि में क्यों ना हो ,और मनुष्य योनि में जन्म प्राप्त होना और अधिक दुर्लभ है। यह दुर्लभ भाग्य हमें प्राप्त हुआ है ।
        भगवान व्यास जी ने ऐसा क्यों कहा? निःसंदेह किसी विशिष्ट अनुभव के कारण ही उन्होंने ऐसा कहा होगा। वे अन्य देशों में भी गए थे अथवा नहीं उनका हमें ज्ञान नहीं और हो सकता है। उन दिनों अन्य देशों में बहुत बड़ी मात्रा में वन्य जीवन रहा होगा ,परंतु भौतिक उन्नति में बहुत प्रगत, पाश्चात्य देशों में पूज्य पाद श्री स्वामी विवेकानंद जी भ्रमण कर आए थे ,यह हम सब जानते हैं। यह अपनी माता है, केवल इसी एक आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे, इसलिए भी हमारी भारत भूमि पुण्य भूमि है। यहां देवताओं ने मानव रूप में जन्म लिया और उत्तम कर्म कर प्रभु श्री राम ने भी कहा "अपि स्वर्णमयी लंका ,न मे लक्ष्मण रोचते। जननी जन्मभूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसी।।" अपना यह राष्ट्र हिंदू राष्ट्र है। उत्तरं यत समुद्रस्य, हिमादृश्यचैव दक्षिणम् वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः। हमारा एक धर्म है, एक संस्कृति है, एक भाषा है, एक इतिहास है, एक परंपरा है, एक समाज है ,और सामान पुरखे हैं। यह सारे राष्ट्रीयत्व के लक्षण अर्थात एक राष्ट्र होने के कारण प्राप्त फल है ।और उनकी आधारभूत ईश्वर प्रदत्त भूमि हमारी माता है। पुनः सुख-दुख की हमारी समान अनुभूति है ,और माता के सुख-दुख से वह संबंध है। अतः हमारी राष्ट्रीयता तर्कसंगत है ,ही परंतु सबसे महत्व की बात यह है, कि पारस्परिक आत्मीयता कि हमारी अनुभूति है। 
        हम एक राष्ट्र हैं यह हमारा नित्य का अनुभव है ।हम संघ के स्वयंसेवक इस हिंदू राष्ट्र के अंग भूत घटक हैं। अर्थात यह विशाल हिंदू समाज, यह हिंदू राष्ट्र और हम संघ के स्वयंसेवक उसके अवयव हैं। अंग अर्थात अवयव और यह अंगी अर्थात शरीर अधिक महत्व को यह भावना हम अपने स्वयंसेवकों के मन पर अंकित करना चाहते हैं। अतः हिंदूराष्ट्रांगभूताः यह शब्द रचना की गई । संघ कार्य उस सर्वशक्तिमान प्रभु को साक्षी मानकर उसी का यह कार्य है, इस भावना के साथ हम सब करते हैं। हम परमात्मा से कहते हैं, कि हमने आपके ही कार्य के लिए अपनी कमर कसी है।



         परम पूज्य डॉक्टर हेडगेवार जी को यह साक्षात्कार हुआ, कि यह ईश्वरीय कार्य है। वह सदैव कहते थे, कि यह ईश्वरीय कार्य है ।और यह यशस्वी हो कर रहेगा किसी व्यक्ति विशेष के लिए यह नहीं रुकेगा, यह उन्हें अनुभव था ।साक्षात्कार था ।अतः प्रार्थना की रचना करते समय हम सब स्वयंसेवकों को उसका नित्य स्मरण रहे यह तदर्थ प्रार्थना में उसका उल्लेख किया हुआ है ।वह महापुरुष थे युग दृष्टा थे हमारी उन पर श्रद्धा है तथापि ऐसा उन्होंने क्यों कहा? इसका विचार कर हमारी बुद्धि को इस सत्य को ठीक समझने का प्रयास करेंगे तो अधिक श्रेयस्कर होगा ।अतः इसका हम विचार करें। "परित्राणाय साधूनाम, विनाशाय च दुष्कृतम् ।धर्म संस्थापनार्थया, संभवामि युगे युगे।।" यह प्रभु श्री कृष्ण का वाक्य प्रार्थना की इस पंक्ति को चरितार्थ करता है ।परम पूजनीय श्री गुरुजी कहते थे "राष्ट्र के प्रति निरतिशय भक्ति, निष्काम भक्ति, अव्यभिचारणी भक्ति यही हमारे कार्य की प्रेरणा शक्ति है ,और ईश्वर भी प्रेम रुप है
        अतः हम कहते हैं कि यह ईश्वरीय कार्य है।" परम पूज्य डॉक्टर हेडगेवार जी कहते थे कि "किसी व्यक्ति विशेष का यह कार्य नहीं है, और एक व्यक्ति ने नहीं किया तो भी वह नहीं रुकेगा इसका कारण क्या है? संघ में हम समाज के व्यक्ति व्यक्ति के अंतः करण पर एक संस्कार करना चाहते हैं, कि व्यक्ति अहंकार रहित होकर कार्य करें ,हंकार रहित होकर कार्य करने वाले कार्यकर्ता कार्य करने के लिए 10 लोग जुटा सकते हैं ,वहां संगठन निर्माण होता है। और परिणाम था ,किसी व्यक्ति के लिए कार्य नहीं रुकता "।श्री गुरु जी ने इसीलिए कहा" मैं नहीं तू ही,  "इदम् राष्ट्राय इदं न मम।"


         प्रार्थना में हमने ईश्वर से अपने लिए 5 गुण मागा है। अजेय शक्ति, सुशील, श्रुतम् अर्थात ज्ञान, वीरव्रत, और अक्षय धेयनिष्ठा। अर्थात हमारे यहां अनुभव है, कि परमात्मा का आशीर्वाद अंततोगत्वा उन्हीं लोगों को प्राप्त होता है, जो उसके योग्य होते हैं। यह संभव नहीं है कि हम अयोग्य रहें और परमात्मा हम पर कृपा करें। इसलिए वह पात्रता हमें प्राप्त हो। अपने जीवन में दैवीय गुणों का विकास होना आवश्यक होता है। सर्वप्रथम जो गुण आवश्यक है वह है,*शक्ति* हमने यह पढ़ा की शक्ति यह ईश्वर का गुण है ।अतः समस्त संसार में जीती जा सके ऐसी शक्ति का अर्जन हम करना चाहते हैं। इसलिए हे प्रभु! हमें अजेय शक्ति दें। जिसके सम्मुख संपूर्ण संसार नतमस्तक हो। हम यह भी अनुभव करते हैं, कि अपने पास केवल शक्ति रहे और शील का अभाव रहा तो वह अपने में विकृति उत्पन्न करती है। हम शक्ति संपन्न हैं यह अनुभूति अहंकार उत्पन्न करती है ।यह सर्वविदित है कि अहंकार उन्माद का जनक है ,और उन्माद की प्रवृत्ति दूसरों को पीड़ा देने में होती है ।अर्थात वह पाशुवी शक्ति का रूप ग्रहण करती है। आज दूसरों को पीड़ा देते हो, आगे हम अपने लोगों को ही पीड़ा देते हैं। परिणाम तथा पारस्परिक संघर्ष होकर हमारी शक्ति और हम भी नष्ट होते हैं। सशक्त होने से जब यादव कुल में अहंकार उत्पन्न हुआ तब मूसल के रूप में उन्माद उत्पन्न कराकर ,भगवान श्री कृष्ण ने पारस्परिक संघर्ष द्वारा उनका विनाश करवाया ।हम सब जानते हैं अतः शक्ति का नियंत्रण एवं संसार में स्थाई नम्रता निर्माण करने के लिए *सुशील* की आवश्यकता होती है।
         शुद्ध चरित्र का यदि निर्माण हुआ तो धर्म एवं न्याय प्रियता का विकास  कर उसको अपने नियंत्रण में रखना संभव होता है। और संसार को भी आंतरिक प्रेरणा जागृत कर सदा के लिए अपना बनाया जा सकता है।
 शील के भी दो पहलू हैं। और दोनों पहलुओं के विकास की आवश्यकता है। एक पहलू में व्यक्तिगत जीवन में शुद्ध चारित्र्य का भाव दूसरा है, राष्ट्रीय जीवन में शुद्ध चारित्र्य का दोनों एक ही सिक्के के दो अंग है। अतः अपरिहार्य रूप से आवश्यक है ऐसी अपनी मान्यता है। दोनों में से एक का भी अभाव हो तो भी व्यक्ति के आधो पतन के साथ राष्ट्र को भी हानि होती है ।इसलिए हमने ईश्वर से सुशील का गुण मांगा है। 
        *वीर व्रत* पहले तीन पुरुषार्थ धर्म ,अर्थ एवं काम का समावेश अभ्युदय माने समुत्कर्ष में है। और चौथा पुरुषार्थ मोक्ष याने यही निःश्रेयस है। चारो की प्राप्ति के लिए जो साधन आप्त जनों ने बताया है ,वह है वीरव्रत, एक अत्यंत श्रेष्ठ परंतु अत्यंत कठोर साधन है। इस वीर व्रत का अंगीकार करना कोई साधारण बात नहीं है ,वीर व्रत की साधना करने के लिए दो प्रकार के शब्दों से संघर्ष करना पड़ता है।एक बाह्य और अंतस्थ अनेक प्रसंगों में प्राण भी गवाने पड़ते हैं, यह प्राण त्याग करने मनुष्य तभी सिद्ध होता है जब अपने शरीर के प्रति आसक्ति ना रखते हुए त्याग प्राप्त करने के लिए कूद पड़ता है ।यही वीर व्रत है। 
        अक्षय धेय निष्ठा ,वीर व्रत का परायण होने के लिए निष्ठा आवश्यक होती है, जितनी अधिक तीव्र धेय निष्ठा होगी, उतना अधिक मन भेद की ओर आकृष्ट होगा ।और जितना अधिक मनोविकार का दमन होकर वीर व्रत की अधिक साधना होगी ,धेयनिष्ठा भक्ति यह अंतः करण की भावना है माता के प्रति यह तीव्र भक्ति आवश्यक है ।इस भावना के अभाव में अन्य सामग्री रहे तो भी माता की सेवा नहीं होती यह भक्ति मनुष्य को कर्म करने के लिए प्रवृत्त करने वाला ईंधन है ऊर्जा है। आत्म निरीक्षण कर स्वयं के जीवन में सुधार कर अपनी रुचि और अरुचि की ओर दुर्लक्ष कर राष्ट्र उत्थान के मार्ग पर कष्ट करते हुए चलने की प्रवृत्ति बने ।बढ़े इसलिए तीव्र भक्ति की आवश्यकता होती है ।अतः हमारी परमात्मा से प्रार्थना है कि अक्षय एवं तीव्र धेयनिष्ठा हमारे अंतः करण में अहर्निश प्रज्वलित हो। इस प्रकार विश्व के लिए अजेय सक्ती ,सारे संसार को नमन करने वाला सुशील, हमने स्वयं अपनाए हुए कंटका कीर्ण मार्ग को सुगम बनाने वाला ज्ञान, पुरुषार्थ चतुष्टय, की प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ एवं कठोर साधन का वीर वृत्त का इस पुराण एवं हृदय में तीव्र एवं अक्षय धेयनिष्ठा का अहर्निश प्रज्वलन इन गुणों की प्राप्ति के साथ अंतःकरण में अंततोगत्वा विजय प्राप्त करने की इच्छा आग्रह होना बहुत आवश्यक होता है।
         यह आग्रह सदैव अपने मन में रहे इसलिए अपनी कार्य शक्ति के लिए विजयेत्री यह विश्लेषण हम विजय प्राप्त करना चाहते हैं ।तदर्थ मन पर संयम की बहुत आवश्यकता होती है। कई दृष्टि कोणों में मनुष्य का मन पर संयम नहीं रहता है और फिर जिस प्रकार एक पतंग ज्योति पर जाकर टूट पड़ता है जल जाता है मर जाता है। उसी प्रकार मनुष्य विद्यमान अन्य परिस्थिति को सहन ना करने के कारण स्वयं को झोंक देता है ।
        स्वयंसेवक के मन में विजगीशु वृत्ति का होना आवश्यक है। एक प्रसंग आता है एक बार नाना साहब टालाटूले के यहां एक चित्र टगां था ,जिसके नीचे लिखा था" कैसे मरना यह हमें सिखाइए "।परम पूजनीय डॉक्टर जी ने कहा देखो मरना हमारा उद्देश्य नहीं है जीना हमारा उद्देश्य है ।मरने का विचार प्रमुख रहा तो हमें मृत्यु प्राप्त होगी ,और जीने का विचार किया तो हम जिएंगे ।इसलिए स्वाभिमान पूर्ण ध्येयनिष्ठ जीवन व्यतीत करना। यह हमारा देश है श्री गुरु जी हमेशा कहते थे "विजय ही विजय है" अतः हम विजय की कामना लिए हुए हैं। विजय प्राप्ति की कामना तीव्र रहे तो सफलता निःसंदेह प्राप्त होगी। समुत्कर्ष एवं निःश्रेयस अपने यहां सर्वमान्य साधन है। पुरुषार्थ चतुष्टय धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का समावेश समुत्कर्ष एवं निःश्रेयस है। समुत्कर्ष माने सम्यक उत्कर्ष अर्थात अभ्युदय धर्म ,अर्थ एवं काम इन तीन पुरुषार्थों का बोध अभ्युदय शब्द से होता है। और निः श्रेयस माने मोक्ष। ये चारों पुरुषार्थ मानव जीवन के लक्ष्य हैं। विजय प्राप्ति की तीव्र आकांक्षा अपने स्वयंसेवकों के मन में जागृत करने पर उसकी साधन बहुत ही संगति संगठित कार्य शक्ति ही हमारी कार्य शक्ति के लिए आवश्यक है। अर्थात साधारण सी भी वस्तुओं का संगठन कार्य सिद्धि के लिए क्षमता देता है। अतः कार्य सिद्धि के लिए संगठित अर्थात संगठन की अपरिहार्य आवश्यकता होती है। केवल एकत्रित शक्ति अथवा एकता द्वारा निर्मित शक्ति ऐसा हम नहीं कह सकते। संहता यह विशेषण लगाकर हम अपने स्वयंसेवकों को यह अनुभव कराना चाहते हैं,कि एकता की अपेक्षा संगठन अर्थात जिसमें प्रत्येक इकाई को गुण प्राप्त हुए हैं ,अधिक प्रभावी होता है ।यूं तो सब यह मांग करते हैं कि आपस में मतभेद हो तो वह दुर्बलता का निर्माण करता है। और एकता में शक्ति होती है तथापि एकता की अपेक्षा संगठन में प्रत्येक इकाई गुण युक्त होने से अधिक शक्ति होती है ।एकता की अपेक्षा संगठन अधिक व्यापक अर्थ का सूचक है संगठन में एकता अपेक्षित है। 
        समाविष्ट है परंतु जहां एकता है वहां संगठन होगा ही ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसलिए दोनों शब्द समानार्थी नहीं हो सकते शाख ओं से सामूहिक कार्यक्रमों द्वारा हम अपनी शक्ति संकल्प शक्ति जागृत करते हैं ।धर्म एवं न्याय की पृष्ठभूमि पर किए गए अधिकारियों के आचरण द्वारा निर्मित वायुमंडल के सहारे सील के संस्कार अपने स्वयंसेवकों के मन पर करने का हमारा प्रयास है। बौद्धिक वर्ग एवं चर्चा के माध्यम से अपने स्वयंसेवकों में ज्ञान का उदय हो यह हमारी योजना है ।अभ्युदय एवं निःश्रेयस की सिद्धि के लिए अंतर्वास शत्रु का दमन करने का जो अभ्यास है वह अपने कार्यक्रम के प्रति आग्रह द्वारा अर्थात जीवन में अपने अन्य सब कार्यक्रमों से भी अधिक महत्व देकर कार्यक्रम करने के आचरण द्वारा हम साध्य करना चाहते हैं। उनके कारण मन को वितरित करने वाले विकारों का दमन होकर राष्ट्र कार्य को जीवन में प्रमुख स्थान देने का अभ्यास होता है। अपने अंतःकरण में ध्यान इच्छा जागृत करने क्या की भावना जगाने के लिए हमने अपने सम्मुख गुरु के ही रूप में अपना भगवा ध्वज जो अपनी यज्ञमय, त्यागमय संस्कृति का प्रतीक है, रखा हुआ है। उसके दर्शन मात्र से ही धेय पूर्ति के लिए तन मन धन से समर्पण करने की भावना जाग उठती है। विजुगीश वृत्ति एवं संगठित भावना का अर्थात प्रत्येक घटक में स्वयंसेवकों के गुणों का विकास हमारी दैनिक शाखा के सम्मेलनों द्वारा बैठकों द्वारा व्यक्तिगत सहवास द्वारा तथा बौद्धिक चर्चा द्वारा किया जाता है। परंतु संस्कार करने के लिए अधिकतम प्रभावी साधन है शाखा जिसमें पारस्परिक
         सहवासऔर आत्मीयता का निर्माण होता है इस प्रकार संगठित कार्य शक्ति का निर्माण कर अपने हिंदू राष्ट्र को परम् वैभव के शिखर पर हम पहुंचाना चाहते हैं ।वैभव शब्द का उच्चारण करते ही भौतिक सुखों की समृद्धि मात्र यही विचार विशेष रूप से आजकल मन चक्षु के सम्मुख आता है ।भौतिक सुख समृद्धि हम चाहते हैं तथापि वहीं हो कि हमारी व्याख्या केवल भौतिक समृद्धि तक में सीमित नहीं हमारी संकल्पना का यह आंशिक रूप है ।यह वैभव धर्म की व्यवस्था से अवरूद्ध हो सुसंगत हो यह हमारी मान्यता है। इसके भी कुछ कारण हैं केवल भौतिक समृद्धि से परिपूर्ण तो रावण का भी राज्य था जहां पंच महाभूत तत्व उसकी सेवा में उपस्थित थे ।और सोने की ईंटें थी परंतु वहां मानवता का अभाव था और दानव ता का बोलबाला  था। तपस्या साधना करने वालों पर भी अत्याचार होते थे, केवल भौतिक सुख समृद्धि योजना में राज्य लक्ष्य होता है ।और व्यक्ति उस लक्ष्य की पूर्ति का साधन मात्र इसलिए व्यक्ति के सर्वांगीण विकास का लक्ष्य होना बहुत आवश्यक है ।
        व्यक्ति में सद्गुणों का विकास हो दुर्गुणों का विनाश हो ऐसी विधि निषेध द्वारा भिन्न-भिन्न आचरण देने के लिए भी व्यवस्था होना अपरिहार्य होता है। अपनी अपनी रुचि पात्रता एक एवं संकल्पना के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा की उपासना कर सके एकं सद् विप्रा बहुधा वदंति के आधार पर व्यक्ति व्यक्ति में सामंजस्य निर्माण कर समाज की धारणा ठीक प्रकार से करना बिना व्यवस्था के असंभव है। इसलिए संघ कार्य ईश्वरीय कार्य है ।इसका हम पुनः पुनः उच्चारण करें उसका अर्थ देखें उसे समझे, उसका चिंतन करें ,मनन करें ,उससे समरस हो, अपना जीवन इस पुनीत कार्य के लिए समर्पित करें। सर्व कर्मफल त्याग की भावना से करें फिर यह ईश्वरीय कार्य होने का हमेशा अच्छा कार्य होगा। उसे करते हुए एक दिव्य आनंद की अनुभूति हमें होगी और फिर कमर कस कर यह ईश्वरीय कार्य तन से मन से धन से अत्यधिक परिश्रम से करने के लिए हमें असीम शक्ति प्राप्त होगी ।अदम्य शक्ति प्राप्त होगी।भारत माता की जय, यहीअपनी पवित्र भावना व्यक्त करता हूँ ।
(🌸प्रर्थना विषय पर बौद्धिक देने हेतु आधार पृष्ठ प्रेषित है ,इसमे आप अपने उद्धरणों, प्रसंगो को जोड़ते हुए और भी अच्छा प्रासंगिक कर सकते हैं।🌸)आपका -दिनेश प्रताप प्रांत बौद्धिक शिक्षण प्रमुख।

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